Dalit Muslims and Dalit Christians should also be given Scheduled Caste status by abolishing Article 341.

अनुच्छेद 341 को समाप्त करके दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की याचिका

नई दिल्ली, 30 नवंबर, 2022। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की मांग की है ताकि वह सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ उठा सकें। इस सम्बंध में जमीयत ने अनुच्छेद 341 में धर्म के आधार पर किए गए भेदभाव को समाप्त करने का अनुरोध किया है और इसे भारत के संविधान की भावना के विरुद्ध बताया है।
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी द्वारा दायर याचिका में सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग 2008 की रिपोर्ट को सबूत के तौर पर पेश किया गया है। याचिका में इस तथ्य का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि इस्लाम एक धर्म के रूप में सभी के दरमियान समानता की सीख देता है जो कि इस्लामी आस्था और सोच का एक अटूट सिद्धांत और मौलिक हिस्सा है। इस्लामी जीवन दर्शन में जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत के मुसलमानों पर हिंदू समाज का प्रभाव है, इसलिए मुस्लिम समाज में भी जाति व्यवस्था और उस पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव पाए जाते हैं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामला बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में भारतीय मुसलमानों में जाति व्यवस्था को स्वीकार किया है। सच्चर कमेटी ने भी अपनी 2006 की रिपोर्ट में अशराफ, अजलाफ और अरजाल के बीच मुसलमानों को विभाजित किया है। साथ ही यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 2008 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों पर एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें यह लिखा है कि शहरी भारत में दलित मुसलमानों की 47 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है, जो कि हिंदू दलित और ईसाई दलित से कहीं अधिक है। इन परिस्थितियों में भेदभाव का यह रूप अनुचित है और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 के विरुद्ध है। यह तर्क भी अनुचित है कि जिस सामाजिक आधार पर उन्हें आरक्षण दिया जाता है, वह इस्लाम या इसाई धर्म अपनाने के बाद समाप्त हो जाता है। क्योंकि इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी भारत की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि में वांछित परिवर्तन नहीं हो पाती। इस संबंध में रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशें आंखें खोलने वाली हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिंद की तरफ से यह याचिका एडवोकेट एमआर शमशाद ने दायर की है और उच्चतम न्यायालय से अपील की है कि याचिकाकर्ता को 2004 की सिविल रिट याचिका संख्या-180 में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जाए और उचित एवं सही निर्णय कर के न्याय का मार्ग प्रशस्त किया जाए।
इस याचिका के सम्बंध में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष व याचिकाकर्ता मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि यह याचिका जमीयत द्वारा समय पर दी गई है। हमारा संगठन काफी समय से सरकारों से मांग करता रहा है कि धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला यह कानून समाप्त किया जाए और किसी को उसके अधिकारों से वंचति न किया जाए। आशा है कि उच्चतम न्यायालय हमारी याचिका पर विचार करेगा और इसे स्वीकार करते हुए भारत सरकार को धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मजबूर करेगा।

 

دفعہ 341 ختم کرکے دلت مسلم اور دلت کرسچن کو بھی درج فہرست ذات کا درجہ دیا جائے

جمعیۃ علماء ہند کے صدر مولانا محمود اسعد مدنی کی طرف سے سپریم کورٹ میں عرضی داخل

نئی دہلی ۳۰؍نومبر: جمعیۃ علماء ہند نے منگل کو سپریم کورٹ سے رجوع کیا ہے کہ دلت مسلم یا دلت عیسائی کو بھی درج فہرست ذات کا درجہ دیا جائے تاکہ وہ سرکاری ملازمتوں اور تعلیم گاہوں میں ریزرویشن کا فائدہ اٹھا سکیں، اس سلسلے میںجمعیۃ نے دفعہ341 میں مذہب کی بنیاد پر کی گئی تفریق کو ختم کرنے کی درخواست کی ہے اور اسے آئین ہند کی روح کے خلاف بتایا ہے۔
جمعیۃ علماء ہند کے صدر مولانا محمود مدنی کی طرف سے داخل کردہ عرضی میں سچر کمیٹی ، رنگاناتھ مشرا کمیشن اور قومی اقلیتی کمیشن 2008 کی رپورٹ کو بطورثبوت پیش کیا گیا ہے ۔عرضی میں اس حقیقت کو بھی واضح طور سے بیان کیا گیا ہے کہ اسلام بحیثیت مذہب تمام انسانوں کے درمیان مساوات کی تعلیم دیتا ہے جو کہ اسلامی عقیدہ و فکر کا ایک غیر منقطع اصول اور بنیادی حصہ ہے۔اسلامی فلسفہ حیات میں ذات پات کے نظام کو تسلیم نہیں کیا گیا ہے ، لیکن اس سچائی سے انکار نہیں کیا جاسکتا ہے ہندستان کے مسلمانوں پر ہندو معاشرے کا اثر ہے ،اس لیے مسلم سماج میں بھی ذات پات اور اس پر مرتب ہونے والے سماجی اثرات پائے جاتے ہیں۔خود سپریم کورٹ نے اندرا ساہنی کیس بنام یونین آف انڈیا میں ہندستانی مسلمان کے درمیا ن ذات پات کے نظام کو تسلیم کیا ہے ،سچر کمیٹی نے بھی 2006 کی رپورٹ میں اشراف، اجلاف اور ارزال کے درمیان مسلمانوں کی تقسیم کیا ہے۔ اس کے علاوہ یہ بات بھی خاص طور سے قابل ذکر ہے کہ 2008 میں نیشنل کمیشن فار مائناریٹیزنے دلت مسلم اور دلت کرسچن پر رپورٹ تیارکی تھی ، جس میں یہ لکھا ہے کہ اربن انڈیا میں دلت مسلم کی 47% فی صد آبادی خط افلاس سے نیچے زندگی گزارتی ہے ، جو کہ ہندو دلت اور کرسچن دلت سے کہیں زیادہ ہے۔ان حالات میں تفریق کی یہ شکل غیر معقول ہے اور آئین کی دفعہ 14، 15 کے خلاف ہے، یہ دلیل بھی غیر معقول ہے کہ جس سماجی بنیاد پر ان کو ریزرویشن دیا جاتا ہے ، وہ اسلام یا عیسائیت اختیار کرنے کے بعد ختم ہو جاتا ہے۔ کیوں کہ اسلام یا عیسائیت اختیار کرنے کے باوجود بھی ہندستان کے موجودہ سماجی پس منظر میں مطلوبہ تبدیلی نہیں ہوپاتی ، اس سلسلے میں رنگاناتھ مشرا کمیشن کی سفارشات چشم کشا ہیں ۔جمعیۃ علماء ہند کی طرف سے یہ عرضی ایڈوکیٹ ایم آرشمشاد نے داخل کی اور عدالت عظمی سے درخواست کی ہے کہ وہ درخواست گزار کو 2004 کی سول رٹ پٹیشن نمبر 180 میں مداخلت کرنے کی اجازت دیں اور مناسب اور درست فیصلہ فرما کر انصاف کی راہ ہموار کریں۔
اس عرضی کے سلسلے میںجمعیۃ علماء ہند کے صدر و عرضی گزار مولانا محمود اسعد مدنی نے کہا کہ جمعیۃ کی طرف سے یہ عرضی بروقت دی گئی ہے، ہماری جماعت کافی عرصے سے سرکاروں سے یہ مطالبہ کرتی رہی ہے کہ مذہب کی بنیاد پر تفریق کرنے والا یہ قانون ختم کیا جائے اور کسی کو اس کے حق سے محروم نہ کیاجائے۔امید ہے کہ عدالت عظمی ہماری عرضی پر غور کرے گی اور اسے قبول کرتے ہوئے حکومت ہند کو سیکولر او رمنصفانہ کردار ادا کرنے پر مجبور کرے گی۔

Nov. 30, 2022


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